Friday, 22 February 2019

अंध श्रद्धा भक्ति खतरा-ए-जान

अंध श्रद्धा भक्ति खतरा-ए-जान 


‘‘अंध श्रद्धा भक्ति का वर्णन‘‘


मूर्ति पूजा क्या है?

मूर्ति पूजा के अंतर्गत अंध श्रद्धालुओं को कई प्रावधान बताए गए हैं
:- श्री विष्णु जी, श्री शिव जी, श्री देवी दुर्गा माता जी, श्रीगणेश जी, श्री लक्ष्मी जी, श्री पार्वती जी तथा अन्य लोक प्रसिद्ध देवी-देवताओं की मूर्तियों की पूजा यानि उनको प्रतिदिन स्नान करवाना, नए वस्त्रा पहनाना, तिलक लगाना, उन पर फूल चढ़ाना, अच्छा भोजन बनाकर उनके मुख को भोजन लगाकर भोजन खाने की प्रार्थना करना। दूध पिलाना, अगरबत्ती व ज्योति जलाकर उनकी आरती उतारना। उनसे अपने परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के लिए प्रार्थना करना। नौकरी-रोजगार, संतान व धन प्राप्ति के लिए अर्ज करना आदि-आदि तथा शिव जी के लिंग (Private Part)यानि गुप्तांग की पूजा करना। उस लिंग पर दूध डालना, उसके ऊपर ताम्बे या पीतल का स्टैंड रखकर ताम्बे या पीतल का घड़ा (छोटी टोकनी) के नीचे तली में बारीक छेद करके पानी से भरकर रखना जिससे लगातार लिंग के ऊपर शीतल जल की धारा गिरती रहती है। यह मूर्ति पूजा है। 
निवेदन :- श्रीमद्भगवत गीता के अध्याय 16 श्लोक 23.24 में स्पष्ट निर्देश है कि जो साधक शास्त्रों में वर्णित भक्ति की क्रियाओं के अतिरिक्त साधना व क्रियाऐं करते हैं, उनको न सुख की प्राप्ति होती है, न सिद्धि यानि आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है, न उनको गति यानि मोक्ष की प्राप्ति होती है अर्थात् व्यर्थ पूजा है। वह नहीं करनी चाहिए क्योंकि साधक इन तीन लाभों के लिए ही परमात्मा की भक्ति करता है। इसलिए वे धार्मिक क्रियाऐं त्याग देनी चाहिऐं जो गीता तथा वेदों जैसे प्रभुदत्त शास्त्रों में वर्णित नहीं है। उपरोक्त मूर्ति पूजा का वेदों तथा गीता में उल्लेख न होने से शास्त्राविरूद्ध साधना है। 
विशेष :- यहाँ पर कुछ तर्क देना अनिवार्य समझता हूँ ।

‘‘शास्त्रों की स्थिति’’

संसार की उत्पत्ति के पश्चात् परम अक्षर ब्रह्म यानि परमेश्वर ने क्षर पुरूष यानि काल ब्रह्म (जिसे ज्योति स्वरूप निरंजन तथा क्षर पुरूष भी कहते हैं) को उसके तप के प्रतिफल में इक्कीश ब्रह्माण्ड का राज्य दिया। काल ब्रह्म ने सनातन परम धाम यानि सतलोक (सच्चखण्ड) में एक भयंकर गलती की। देवी दुर्गा जी ने तथा हम सबने भी वहाँ पर गलती की। जिस कारण से इसको तथा इसकी पत्नी देवी दुर्गा तथा हम सब प्राणियों सहित इसके इक्कीश ब्रह्माण्डों सहित सतलोक से निकाल दिया। इसके इक्कीश ब्रह्माण्ड हम सबको साथ लिए सतलोक से सोलह (16) संख कोस यानि 48 संख किलोमीटर की दूरी पर आ गए। क्षर पुरूष यानि काल ब्रह्म से पहले परमेश्वर (सत पुरूष) ने अक्षर पुरूष यानि परब्रह्म की उत्पत्ति की थी। उसको सात संख ब्रह्माण्ड का क्षेत्रा दिया था। सतपुरूष यानि परमेश्वर को                                                              1.

‘‘अंध श्रद्धा भक्ति ‘‘

परम अक्षर पुरूष या परम अक्षर ब्रह्म भी कहा जाता है। इन तीनों पुरूषों (क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष तथा परम अक्षर पुरूष) का वर्णन गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17 में स्पष्ट है। श्लोक 17 में परम अक्षर पुरूष की महिमा बताई है। 
क्षर पुरूष केवल इक्कीश ब्रह्माण्डों का स्वामी है :- यह क्षर पुरूष यानि काल ब्रह्म है। एक ब्रह्माण्ड में तीन लोक विशेष प्रसिद्ध हैं :- 1. पृथ्वी लोक, 2. स्वर्ग लोक, 3. पाताल लोक। इसके अतिरिक्त शिव लोक, विष्णु लोक, ब्रह्मा का लोक, महास्वर्ग लोक यानि ब्रह्म लोक, देवी दुर्गा का लोक, इन्द्र का लोक, धर्मराय का लोक,सप्तपुरी लोक, गोलोक, चाँद, सूर्य, नौ गृह, नौ लाख तारे, छयानवें करोड़ मेघ माला, अठासी हजार ऋषि मंडल, तेतीस करोड़ देव स्थान आदि-आदि विद्यमान हैं।
जिसमें हम रह रहे हैं, यह काल ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्माण्डों में से एक है। इस एक ब्रह्माण्ड का संचालक भी काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) है।पाँच ब्रह्माण्डों का एक महाब्रह्माण्ड है। एक ब्रह्माण्ड बीच में तथा अन्य चार इस बीच वाले ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करते रहते हैं। परिक्रमा करने वाले एक ब्रह्माण्ड में हम रह रहे हैं। जिस ब्रह्माण्ड में हम रह रहे हैं तथा एक जो मध्य वाला ब्रह्माण्ड है, वर्तमान में केवल इन्हीं दो ब्रह्माण्डों में जीव हैं। महाब्रह्माण्ड के बीच वाले ब्रह्माण्ड में जीव हैं। यह ज्ञान केवल क्षर पुरूष और देवी दुर्गा जी को ही है। अन्य मानते हैं कि वर्तमान में केवल इसी में जीव हैं, अन्य ब्रह्माण्डों में जीव नहीं हैं। जब इस ब्रह्माण्ड में प्रलय होगी, तब उन परिक्रमा करने वालों में से एक में सृष्टि क्रम शुरू होगा। काल ने प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं कभी किसी को अपने वास्तविक
स्वरूप (काल रूप जो इसका असली चेहरा है) में दर्शन नहीं दूँगा। (प्रमाण :- गीता अध्याय 7 श्लोक 24.25) इसलिए यह अपने पुत्रों ब्रह्मा जी, विष्णु जी तथा शिव जी के रूप में अपने साधक को दर्शन देता है। जिस कारण से ऋषियों को साधना
समय में जिस रूप में दर्शन हुए, उसी की महिमा कहनी शुरू कर दी। यह शिव पुराण में सदाशिव या महाशिव कहा जाता है। विष्णु पुराण में महाविष्णु तथा ब्रह्मा पुराण में महाब्रह्मा कहा गया है। इसी कारण से वर्तमान तक सब ऋषिजन भ्रम में
पड़कर रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी को सर्वेस्वा मानने लगे क्योंकि ऋषिजनों ने वेदों को पढ़ा। (उस समय पुराणों की रचना नहीं हुई थी। पुराण ऋषियों का अनुभव है और वेद ज्ञान यानि चारों वेद परमात्मा द्वारा दिए गए हैं।) वेदों में केवल एक अक्षर ओं (ओम्=ॐ) मंत्रा है भक्ति करने का, अन्य कोई मंत्रा मोक्ष का नहीं है। (प्रमाण :- यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्रा 15 में।) ऋषियों ने ॐ (ओम्) नाम का जाप किया जो ब्रह्म (काल ब्रह्म = क्षर पुरूष) का है। ब्रह्म (क्षर पुरूष) ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने वास्तविक रूप में दर्शन न देकर अपने पुत्रों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) के रूप में दर्शन देकर उनकी भक्ति के प्रतिफल का आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गए। किसी ऋषि को श्री ब्रह्मा जी के रूप में दर्शन दिए। उस ऋषि को विश्वास हो गया कि रजगुण ब्रह्मा जी जो सर्गुण देवता हैं, ये ही पूर्ण परमात्मा हैं। ऋषियों को चारों वेदों का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं था। (कारण आगे तुरंत बताऊंगा, उसी के लिए यह भूमिका लिख रहा हूँ कि ऋषियों को वेदों का ज्ञान ठीक से क्यों नहीं था।) उन्होंने वेदों में पढ़ा कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने से मोक्ष मिलता है। जरा-मरण समाप्त हो जाता है। अन्य देवताओं (रजगुण ब्रह्मा,सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव जी व अन्य देवी-देवता, ये सब अन्य देवताओं की
श्रेणी में आते हैं) की भक्ति से पूर्ण मोक्ष संभव नहीं है। ऋषियों ने अज्ञानता के कारण पूर्ण परमात्मा की भक्ति व साधना का मंत्रा ओं (ॐ) मान लिया तथा श्री ब्रह्मा जी से सुनकर हठयोग से तप भी साथ-साथ किया क्योंकि ब्रह्मा जी ने वेदों की प्राप्ति से पहले जब वे श्री विष्णु जी की नाभि से निकले, कमल पर युवावस्था में सचेत हुए तो क्षर पुरूष (काल ब्रह्म) ने आकाशवाणी की कि तप करो - तप करो। श्री ब्रह्मा जी ने एक हजार वर्ष तक तप किया। उसी हठपूर्वक तप को श्री ब्रह्मा जी ने पूर्ण परमात्मा के द्वारा की गई आकाशवाणी मान लिया जबकि यह आकाशवाणी क्षर पुरूष ने की थी जिसे ऋषिजन ब्रह्म कहते हैं। यह पूर्ण परमात्मा नहीं है। पूर्ण परमात्मा तो परम अक्षर ब्रह्म है जिसका वर्णन गीता अध्याय 8 श्लोक
1 में किए अर्जुन के प्रश्न कि ‘‘तत् ब्रह्म क्या है?’’ के उत्तर में इसी अध्याय 8 के श्लोक 3 में गीता ज्ञान बोलने वाले ने दिया है कि ‘‘वह परम अक्षर ब्रह्म है।’’ इसी का ज्ञान अध्याय 8 के श्लोक 8ए 9ए 10 तथा 20ए 21ए 22 में है तथा अध्याय 15 के श्लोक 4 तथा 17 में है। इसी की शरण में जाने के लिए गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा 66 में कहा है। उसकी साधना का मंत्रा गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में बताया है जिसकी भक्ति का ज्ञान तत्वदर्शी संत से प्राप्त करने को कहा है। (प्रमाण :- गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में) वह तत्वज्ञान न चारों वेदों में है, न ही गीता, पुराणों व उपनिषदों में है। वह सूक्ष्मवेद में है। (कारण आगे बताने जा रहा हूँ।) ऋषियों ने अज्ञान आधार से हठ करके घोर तप तथा ओं (ॐ) मंत्रा का जाप किया। उसी कारण से काल ब्रह्म ने किसी को विष्णु जी के रूप में साधक ऋषि को दर्शन दिए। उस ऋषि ने सतगुण विष्णु देवता को पूर्ण परमात्मा मान लिया
क्योंकि वे ऋषिजन गलती से ॐ मंत्रा का जाप पूर्ण परमात्मा का मान बैठे जो भूल वर्तमान तक लगी है। इसी प्रकार काल ब्रह्म ने अन्य ऋषि को तमगुण शिव देवता के रूप में दर्शन दिए तो उसने श्री शिव जी तमगुण को ही पूर्ण परमात्मा घोषित कर दिया। किसी ऋषि साधक को ब्रह्मा जी के रूप में दर्शन दिए तो उसने श्री ब्रह्मा जी रजगुण देवता को पूर्ण परमात्मा बताया। जिस कारण से इन्हीं तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) में से दो देवताओं (श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी) तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा करने लगे। ऋषियों को पुराणों का ज्ञान श्री ब्रह्मा जी ने दिया। यह एक ही बोध था।                                                                 2.

‘‘अंध श्रद्धा भक्ति‘‘

ऋषियों ने अपने पिता, पितामह श्री ब्रह्मा जी से सुने पुराण ज्ञान में अपना अनुभव एक-दूसरे से सुनी कथाऐं मिला-मिलाकर अठारह पुराण बना दिए जिनमें वेदों का ज्ञान नाममात्रा है। अधिक ज्ञान ऋषियों का अपना अनुभव जो भक्ति मार्ग यानि पूर्ण मोक्ष मार्ग में प्रमाण में नहीं लिया जा सकता यानि जो साधना करने की विधि पुराणों में ऋषियों द्वारा लिखी है और वह वेदों तथा वेदों के सारांश रूप श्रीमद्भगवत गीता से मेल नहीं करती तो वह शास्त्रा विरूद्ध है। उस साधना को नहीं करना है। इन्हीं ऋषियों ने शास्त्रा विरूद्ध साधना जैसे मूर्ति पूजा, श्राद्ध करना, पिण्ड दान करना, मंदिर बनवाना तथा उनमें मूर्ति स्थापित करना, उनमें प्राण प्रतिष्ठा करना, शिव लिंग की पूजा करना, अन्य देवी-देवताओं की पूजा ईष्ट रूप में करना, का प्रचलन किया जो न पवित्रा वेदों में
वर्णित है, न चारों वेदों का सारांश पवित्रा गीता में वर्णित है। जो साधना वेदों तथा गीता में वर्णित नहीं है, वह नहीं करनी है क्योंकि वह शास्त्राविधि को त्यागकर मनमाना आचरण होने से व्यर्थ है। आप जी को स्पष्ट हुआ कि पुराण ऋषियों कृत ज्ञान है जो वेदों की प्राप्ति के पश्चात् का है जो ऋषियों के अधूरे वेद ज्ञान का परिणाम है और भक्ति के योग्य नहीं है।
उपनिषद :- उपनिषद भी ऋषियों का अपना निजी अनुभव है। पुराणों में जिस ऋषि ने पुराण का ज्ञान किसी जन-समूह को प्रवचन करके बताया। उसमें अपना अनुभव तथा अन्य किसी से सुना ज्ञान भी मिलाया है। परंतु उपनिषद एक ऋषि का अपना अनुभव है। उसी के नाम से उपनिषद प्रसिद्ध है। जैसे कठोपनिषद यानि कठ ऋषि द्वारा लिखा अपना अनुभव, यह उपनिषद है। यदि उपनिषदों का ज्ञान वेद विरूद्ध है तो वह भी अमान्य है। भक्ति व साधना में प्रयोग करने योग्य नहीं है। शास्त्रों की स्थिति बताई जा रही है
 :- पुराणों तथा उपनिषदों की स्थिति का वर्णन कर दिया है।
चारों वेदों की स्थिति
:- जिस समय क्षर पुरूष (काल ब्रह्म यानि ज्योति स्वरूप निरंजन काल) को हमारे सहित इक्कीश ब्रह्माण्डों को सतलोक से दूर भेज दिया, उसके पश्चात् काल ब्रह्म ने अपनी पत्नी देवी दुर्गा (अष्टंगी) से विलास करके तीन पुत्रों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु तथा तमगुण शिव) को उत्पन्न किया। श्री
दुर्गा देवी जी ने अपने वचन से तीन युवा लड़की उत्पन्न की। उनका नाम सावित्रा, लक्ष्मी और पार्वती रखा। इनका विवाह क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव से कर दिया। इसके पश्चात् काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) के इक्कीश ब्रह्माण्डों में जीव उत्पन्न होने व मरने का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। पूर्ण परमात्मा को ज्ञान था कि जो आत्मा अपनी गलती से काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) के साथ गए हैं, वे वहाँ पर महाकष्ट उठाऐंगे। पुनः सुख स्थान यानि सतलोक (सनातन परम धाम) में आने के लिए यथार्थ साधना की आवश्यकता पड़ेगी तथा उनको ज्ञान होना चाहिए कि तुम किस कारण से इस काल लोक में
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‘‘अंध श्रद्धा भक्ति‘‘

जन्म-मर रहे हो? कुत्ते, गधे, पक्षी आदि का जीवन क्यों भोग रहे हो? इस जन्म-मरण के संकट से मुक्ति कैसे मिलेगी? इस विषय का सम्पूर्ण वेद ज्ञान यानि सूक्ष्मवेद पूर्ण परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) ने अपनी आत्मा से क्षर पुरूष (काल ब्रह्म) की आत्मा में ई-मेल कर दिया। कुछ समय बाद वह सम्पूर्ण वेद ज्ञान (सूक्ष्मवेद) काल ब्रह्म (ज्योति स्वरूप निरंजन यानि क्षर पुरूष) की श्वासों द्वारा बाहर प्रकट हुआ। जैसे कम्प्यूटर द्वारा प्रिंटर को कमांड देते ही मैटर स्वतः बाहर आ जाता है।परम अक्षर पुरूष के कमांड देने से काल ब्रह्म की आत्मा से श्वासों द्वारा पूर्ण वेद बाहर आया। क्षर पुरूष ने उस सूक्ष्म वेद को पढ़ा तो इसने हमारे साथ धोखा किया। इसको लगा कि यदि इस ज्ञान का तथा समाधान का मेरे साथ आए प्राणियों को पता लग गया तो ये सब सत्य साधना करके मेरे लोक से सतलोक (सनातन परम धाम) में चले जाऐंगे। इसने उस सम्पूर्ण वेद को कांट-छांट करके विशेष ज्ञान नष्ट कर दिया। केवल वह प्रकरण व साधना वाला ज्ञान भक्ति का वर्णन रख लिए जिससे जन्म-मरण बना रहे और मानव जीवन प्राप्त प्राणी शेष बचे अधूरे वेद का ज्ञान रखें और भ्रम बना रहे कि हम पूर्ण परमात्मा की भक्ति कर रहे है, परंतु वे मंत्रा काल ब्रह्म की साधना के होने के कारण इनका जन्म-मरण, स्वर्ग-नरक सदा बना रहेगा और मेरे लोक में फँसे रहेंगे। ऐसा विचार करके काल ब्रह्म ने अधूरा वेद ज्ञान समुद्र में छुपा दिया। गुप्त रूप से अपनी पत्नी देवी दुर्गा को संदेश दिया कि इन तीनों पुत्रों (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) को सागर मंथन के लिए भेज दे। मैंने सब व्यवस्था कर दी है। एक ज्ञान निकलेगा, उसे मेरा बड़ा पुत्रा ब्रह्मा प्राप्त करे। उसके पश्चात् अन्य को वह ही बताए। ऐसा ही किया गया। सागर मंथन में वेद ब्रह्मा जी को मिले जिनमें पूर्ण अध्यात्म ज्ञान तथा पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने की विधि नहीं है। केवल स्वर्ग-महास्वर्ग (ब्रह्मलोक) तक प्राप्ति की भक्ति विधि वर्णित है। उस कारण से सब प्राणी उस सनातन परम धाम को प्राप्त नहीं कर पा रहे जिसके विषय में गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में बताया है। उस परमेश्वर का स्पष्ट ज्ञान शेष बचे वेद में नहीं है। इसलिए गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में कहा है कि सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान तथा धार्मिक यज्ञों (अनुष्ठानों) की सम्पूर्ण विधि का ज्ञान स्वयं (ब्रह्मणः मुखे वितताः) सच्चिदानंद घन ब्रह्म (परम अक्षर पुरूष) ने अपने मुख से बोली वाणी में विस्तार से बताया है। वह तत्वज्ञान (सूक्ष्मवेद) है। उसमें वर्णित विधि से सर्व पाप नष्ट हो जाते हैं और वह साधना अपने दैनिक कर्म (कार्य)
करते-करते करने का प्रावधान है। (गीता अध्याय 4 श्लोक 32) (अधिक जानकारी के लिए पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 59 पर ‘‘सूक्ष्मवेद का रहस्य’’ में।) गीता अध्याय 4 श्लोक 34 :- इसमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो तत्वज्ञान परमात्मा स्वयं प्रकट होकर पृथ्वी पर अपने मुख कमल से बोली वाणी में बताता है, उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी संतों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत् प्रणाम करने से कपट छोड़कर नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भली-भांति जानने वाले ज्ञानी महात्मा उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे। (गीता अध्याय 4 श्लोक 34) गीता अध्याय 15 श्लोक 4 :- इसमें कहा है कि तत्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् अज्ञान को इस तत्वज्ञान रूपी शस्त्रा से काटकर यानि तत्वज्ञान को भली-भांति समझकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रूप वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है यानि जिस परमात्मा ने सर्व ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति की है, उसी परमेश्वर की भक्ति करो। (गीता अध्याय15 श्लोक 4) गीता अध्याय 18 श्लोक 62 :- हे भारत! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शांति यानि जन्म-मरण से सदा के लिए छुटकारा तथा (शाश्वतम् स्थानम्) सनातन परम धाम यानि सतलोक को प्राप्त करेगा।
                                                                             4.

Saturday, 9 February 2019

superstition and obscureness अंधविश्वास और अंधकार


                 

अंधविश्वास और अंधकार
(superstition and obscureness)
नमस्कार दोस्तो आज के युग में अंधविश्वास चरम सीमा पर है और आज हम बात भी इसी पर करने वाले है।
आखिर अंधविश्वास है क्या, इसकी क्या परिभाषा है। क्या धार्मिक आस्था एक अंधविश्वास है। क्या ज्योतिष एक अंधविश्वास है। अंधविश्वास का यदि संधिविच्छेद किया जाये तो यह है – अंध + विश्वास।
superstition and obscureness
अंध – अँधा यानि की बिना सोचे विचारे कार्य करना। जिस प्रकार एक अँधा व्यक्ति रास्ते पर चलने के लिए एक छड़ी या, दुसरे व्यक्ति पर निर्भेर रहता है। उसी प्रकार अंध विचारधारा का व्यक्ति भी बिना सोचे समझे कुछ विचारो के पीछे भागता है…बिना एनालिसिस किये। विश्वास  – किसी भी विचारधारा, व्यक्ति, पार्टी, धर्म, रीति-रिवाज का अनुसरण करना विश्वास है। जिस प्रकार किसी अंधे व्यक्ति को अपनी मंजिल तक पहुचने के लिए किसी के सहारे की जरूरत होती है वैसे ही अंधविश्वास के अंधकार को खत्म करने के लिए हमे शास्त्रों की जरूरत है।

धर्म – अक्सर सभी धर्मो के अनुयायी यही बोलते है की हमारे धर्म की पुस्तक ईश्वर ने भेजी है या आसमान से आई है। क्या ये सच हो सकता है? क्या ईश्वर कोई पुस्तक सभी धर्मो के लिए भेजेगा वो भी अलग अलग लॉजिक के साथ। क्या विज्ञानं सभी धर्मो के लिए अलग अलग है, क्या मैथ अलग अलग धर्मो के लिए अलग अलग है, नहीं। जो सत्य है वो सत्य है। वो १००, ५००, १०००, ५०००, १०००० साल पहले भी सत्य था आज भी और हमेशा सत्य रहेगा। मैथ में नए लॉजिक सोचे जा सकते है लेकिन १+१=२ ही रहेगा वो ३ नहीं होगा, इसी तरह से धर्म भी गतिशील है, बिना एनालिसिस किये कोई भी बात को मानना परमात्मा के और, प्रकृति के नियमो के खिलाफ है। किसी पुराने लॉजिक को नए नियमो के साथ परिवर्तित करके जो मानव कल्याण के लये अच्छा हो, रुचिकर हो अपनाना बेहतर होता है, बजाय उसे पूरी तरह से ख़ारिज करने के।

हमें ना तो अंधविश्वासी होना है और ना ही अंधविरोधी। हमें पारखी बनना है ताकि सही गलत की पहचान कर सके। अगर कोई धर्म कहता है या  कोई धर्म गुरु सिर्फ अपनी बात मनवाते हो ओर शास्त्रों को  प्रमाणित नही करते हो उनको छोड़ दो, क्योंकि जिस तरीके से मानव जाति प्रगतिशील है उसी तरीके से धर्म भी। परमात्मा ने अपनी गवाई के लिए शास्त्रों में प्रमाणित करने के लिए शास्त्र दिए है।

लेकिन समय के साथ कुछ विश्वास समाज में इतने गहरे से प्रविष्ट हो गए की आजकल लोग या तो उन्हें पूरी तरीके से नकार कर अंधविश्वास मानते है या फिर पूर्ण विश्वास जब एक समाज परिपक्व होता है तो उसे किसी भी विचार, कार्य को पूर्ण तरीके से नाही नकारना चाहिये और, नाही विश्वास करना चाहिये। एक अपरिपक्व व्यक्ति, समाज या धर्म ही उसे पूर्ण सत्य मानने की अनुमति देता है।

एक परिपक्व समाज उन विचारो का एनालिसिस करके उसमे समाज की उपयोगिता की उपयोगिता का पता करता है। कुछ अंधविश्वास एसे भी होते है जिसमे समाज या व्यक्ति के लिए निर्देश छिपे हो लेकिन अंधविश्वास के तहत  शास्त्र प्रमाण को पूरी तरह से न नकार कर उस निर्देश को समझना नह चाहता।
क्योंकि हमारे धर्म गर्न्थो में असत्य नही बल्कि सत्य लिखा है प्रमाणित लिखा है अंधविश्वास के अंधकार को हटाने के लिए सतगुरु का होना बहुत जरूरी है।
जिस प्रकार विद्यालय में अच्छी शिक्षा के लिए अच्छे शिक्षक की आवश्यकता होती  है, ठीक उसी तरह हमारे समाज में भी आध्यात्मिक गुरु की जरूरत होती है।
जैसे असली ओर नकली नोट की पहचान कर पाना मुश्किल है, उसी प्रकार पूरे गुरु की पहचान कर पाना मुश्किल है, क्योंकि नकली धर्म गुरुओं की कमी नही है।
आध्यात्मिक गुरु की पहचान हमारे धर्म गर्न्थो में बताई है।

यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 25 का
भावार्थः- तत्वदर्शी सन्त वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णन करता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाता है।

यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 26 का
भावार्थः- जिस पूर्ण सन्त के विषय में मन्त्रा 26 में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः दिन के मध्य-तथा शाम को) साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा मध्याõ को सर्व देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है।

यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 30 का
भावार्थ:- पूर्ण सन्त उसी व्यक्ति को शिष्य बनाता है जो सदाचारी रहे। अभक्ष्य पदार्थों का सेवन व नशीली वस्तुओं का सेवन न करने का आश्वासन देता है। पूर्ण सन्त उसी से दान ग्रहण करता है जो उसका शिष्य बन जाता है फिर गुरू देव से दीक्षा प्राप्त करके फिर दान दक्षिणा करता है उस से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य भक्ति करने से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति होती है अर्थात् पूर्ण मोक्ष होता है। पूर्ण संत भिक्षा व चंदा मांगता नहीं फिरेगा।

कबीर, गुरू बिन माला फेरते गुरू बिन देते दान।
गुरू बिन दोनों निष्फल है पूछो वेद पुराण।।


तीसरी पहचान तीन प्रकार के मंत्रों (नाम) को तीन बार में उपदेश करेगा जिसका वर्णन कबीर सागर ग्रंथ पृष्ठ नं. 265 बोध सागर में मिलता है व गीता जी के अध्याय नं. 17 श्लोक 23 व सामवेद संख्या नं. 822 में मिलता है।

गीता अध्याय 17 का श्लोक 23 का 
भावार्थ:- इस मन्त्रा में स्पष्ट किया है कि पूर्ण परमात्मा कविर अर्थात् कबीर मानव शरीर में गुरु रूप में प्रकट होकर प्रभु प्रेमीयों को तीन नाम का जाप देकर सत्य भक्ति कराता है तथा उस मित्रा भक्त को पवित्राकरके अपने आर्शिवाद से पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके पूर्ण सुख प्राप्त कराता है। साधक की आयु बढाता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में है कि ओम्-तत्-सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविद्य स्मृतः भावार्थ है कि पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने का ¬ (1) तत् (2) सत् (3) यह मन्त्रा जाप स्मरण करने का निर्देश है। इस नाम को तत्वदर्शी संत से प्राप्त करो। तत्वदर्शी संत के विषय में गीता अध्याय 4 श्लोक नं. 34 में कहा है तथा गीता अध्याय नं. 15 श्लोक नं. 1 व 4 में तत्वदर्शी सन्त की पहचान बताई तथा कहा है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान जानकर उसके पश्चात् उस परमपद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए। जहां जाने के पश्चात् साधक लौट कर संसार में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। उसी पूर्ण परमात्मा से संसार की रचना हुई है।

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